अमर तिवारी की स्पेशल रिपोर्ट
आखिर झारखंडी भाषा खतियानी संघर्ष समिति के टाइगर जयराम की क्यों जरूरत है इस झारखंड को। सच कहें तो अबतक झारखंडियों को उनका असली अधिकार ही नहीं मिला है। झुमरा पहाड़ और पारसनाथ की तलहटी नहीं उसके शिखर से जयराम के शंखनाद का असली लक्ष्य यही है। जयराम के सूत्रों ने बताया कि झारखंड में सत्ता में आई तमाम सरकारों ने यहां के दर्द और मर्म को समझा ही नहीं, उल्टे अनदेखी की। सत्ता सुख जाने के भय से इसे मुद्दा ही नहीं बनाया। असलियत है कि यहां के लोग रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं और मेहमान यहां मेजबान बन गए हैं। आगे कहा गया कि लंबे संघर्ष और आंदोलन के बाद बिहार से झारखंड अलग तो हुआ, पर यह दूसरे राज्यों के नेताओं, अधिकारियों और बेरोजगार युवकों का चारागाह बन गया। यहां की गाय, यहीं का चारा पर दुधारू गाय की दूध दूसरे लोग पी रहे हैं और तो और दूसरे राज्य से काम करने आए लोग नेतागिरी करते करते यहां सीएम तक बनने में कामयाब हो गए ।
एनडीए के नौ सांसदों में तीन सांसद झारखंड राज्य के मूल निवासी नहीं हैं। उनमें संजय सेठ,निशिकांत दुबे बीङी राम का नाम शामिल है। पहले यह संख्या छह थी।इसमें रविन्द्र पांडेय,जयंत सिन्हा और चतरा के सुनील सिंह भी शामिल थे। परंतु बीजेपी ने यहां के मूलवासियों की भावना को समझते हुए बिहार मूल के तीन सांसदों का पत्ता 2024 के चुनाव में काट दिया। आर्थिक रूप से संपन्न पर राजनीतिक रूप से कमजोर झारखंड मंगरु की मौगी, सबकी भौजी वाली स्थिति में है। केवल कार्यपालिका ही नहीं बल्कि अन्य स्तंभ भी झारखंडियों एवं दूसरे राज्यों से आकर यहां रचे बसे लोगों के खिलाफ है। तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास के समय यहां की तृतीय श्रेणी की नौकरियों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के युवकों ने दबदबा कायम कर लिया और झारखंडी और यहां रचे बसे बेरोजगार युवकों की छाती पर मूंग दल कर नौकरियां हथिया ली।
दरअसल घर-घर रघुवर की सरकार ने पूरे झारखंड को दो भागों में बांट दिया था। स्थिति तो यह हो गई कि 11 सामान्य जिलों के बेरोजगार 13 अनुसूचित जिलों की नौकरियों में आवेदन नहीं कर पाए। उधर 11 सामान्य जिलों में गजटेड अफसर की तरह तृतीय वर्ग की नौकरियों में भी ऑल इंडिया का दरवाजा खोल दिया । परिणाम यह हुआ कि हल्का कर्मचारी, पंचायत सेवक, किरानी, प्राइमरी व हाईस्कूली शिक्षक, दारोगा आदि पदों पर बड़ी संख्या में यूपी, एमपी, बंगाल,उड़ीसा आदि राज्यों के युवक काबिज हो गए और यहां के युवक हाथ मलते रह गए।
2019 में सत्ता में आने के बाद तृतीय वर्ग की नौकरियों में दूसरे राज्यों के युवकों को रोकने के लिए हेमंत सोरेन सरकार ने प्रावधान किया कि झारखंड में मैट्रिक और इंटर करने वाले ही थर्ड क्लास की नौकरियां पा सकेंगे। मुख्यमंत्री पद से हट चुके रघुवर दास ने इस प्रावधान का खुला विरोध किया था। एक आदिवासी को आगे कर मामले को हाई कोर्ट ले जाया गया और उसमें उत्तर प्रदेश के सात आठ लोग पार्टी बने। 2022 के 17 सितंबर को हाई कोर्ट में बहस पूरी हुई और फैसला सुरक्षित रख लिया गया । माननीय न्यायाधीश महोदय ने 31 दिसंबर 2022 को अवकाश ग्रहण करने के पूर्व 17 दिसंबर 2022 को फैसला दिया कि झारखंड में मैट्रिक और इंटर करने पर आधारित प्रावधान और नियम गलत है। इसके बाद झारखंड कर्मचारी चयन आयोग की सारी तैयारियां धरी की धरी रह गई और सारी बहालियां रद्द कर दी गई ।
विवश होकर हेमंत सोरेन सरकार ने भी थर्ड क्लास की नौकरियों में दूसरे राज्यों के लोगों का दरवाजा खुला रखा है। सरकार इसका काट नहीं निकाल पाई। तत्कालीन शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो ने योजना बनाई थी कि हाई स्कूलों में पारा की तरह शिक्षक बहाल कर लेंगे और फिर उन्हें स्थाई कर देंगे परंतु उनके बीमार हो जाने के बाद इस योजना की भी भ्रूण हत्या हो गई। स्थानीय निवासी प्रमाण पत्र में तो तत्कालीन रघुवर सरकार ने झारखंडियों व यहां रचे बसे राज्यों के लोगों का अस्तित्व ही खत्म कर दिया। कार्मिक, प्रशासनिक एवं राजभाषा सुधार विभाग बिहार पटना के प्रावधानों के तहत बिहार के जिलों में मूल निवासी, स्थाई निवासी और और अस्थाई निवासी का आवासीय प्रमाण पत्र अब भी निर्गत होता है, जो यहां भी 15 नवंबर 2000 तक निर्गत होता था।
यदि राम पटना के गर्दनीबाग के मूल निवासी है तो उनके प्रमाण पत्र में लिखा रहता है- राम गर्दनीबाग पटना में पिछले 10 वर्षों से रहते आ रहे हैं और यहां के मूल निवासी हैं। लक्ष्मण यदि छपरा से गर्दनीबाग में घर बनाकर रह रहे हैं तो उनके प्रमाण पत्र में लिखा जाता है- लक्ष्मण पिछले 10 वर्षों से गर्दनीबाग पटना में रहते आ रहे हैं और यहां के स्थाई निवासी है। भरत ठेला चला कर जिंदगी जी रहे हैं और गर्दनीबाग में भाड़े के मकान में रहते हैं तथा वहां का आधार कार्ड और राशन कार्ड बना लिए हैं तो उनके प्रमाण पत्र में लिखा रहता है- भरत पिछले 10 वर्षों से गर्दनीबाग पटना में रहते आ रहे हैं और यहां के अस्थाई निवासी है।अर्थात निवासी प्रमाण पत्र से स्पष्ट होता है कि कौन कहां के वासी है।
झारखंड बनने के बाद जब तक किसी भी दल के अनुसूचित जनजाति के मुख्यमंत्री रहे, तब तक झारखंड सरकार का कार्मिक प्रशासनिक सुधार एवं राजभाषा विभाग दो तरह का आवासीय प्रमाण पत्र निर्गत करता था – एक नियोजन के लिए और दूसरा शिक्षा के लिए। नियोजन के लिए अर्थात खतियानी वासी हैं और शिक्षा के लिए मतलब दूसरे राज्य से आकर यहां घर बनाएं है। परंतु रघुवर सरकार ने 2016 में जो स्थानीय नीति बनाई, उसमें सभी को एक तराजू में तौल दिया। सभी को एक ही तरह का स्थानीय निवासी प्रमाण पत्र जारी किया जाने लगा। चाहे वह यहां के खतियानी हो या 50 वर्ष पूर्व से घर बनाकर रह रहे हों या 10 वर्ष पूर्व से घर बना कर रह रहे हैं। इस तरह रघुवर सरकार की नीति ने झारखंडी अस्मिता पर प्रहार किया था। लोगों की पहचान ही खत्म कर दी थी। हालांकि 2019 के
विधानसभा चुनाव में झारखंडी जनता ने इसका करारा जवाब दिया और अबकी बार 65 पार का नारा देने वाली, विकास कार्यों की झड़ी लगाने वाली, चुनाव जीतने के लिए विकास के मद में पानी की तरह रुपैया बहाने वाली, उस समय देश चर्चित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक दर्जन चुनावी सभा के बावजूद भाजपा को केवल 25 सीटें देकर ही धूल चटा दी। इसमें भी हिंदू- मुस्लिम के नाम पर इतनी सीटें आई अन्यथा स्थिति और बुरी होती। निहत्थे और संसाधन विहीन हेमंत सोरेन ने अपने बलबूते 30 सीटे लाई । हालांकि तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन या वर्तमान मुख्यमंत्री चंपई सोरेन रघुवर सरकार की उस स्थानीय निवासी प्रमाण पत्र के प्रावधान को नहीं बदल पाए हैं, जिससे झारखंडी की पहचान ही खत्म हो गई है।
चंपई सोरेन यदि चाहेंगे तो बिहार वाला स्थानीय निवासी प्रमाण पत्र या रघुवर दास के पहले वाला स्थानीय प्रमाण पत्र का प्रावधान लागू कर सकते हैं परंतु इस पर न तो माननीय मुख्यमंत्री का ध्यान है और नहीं झारखंडी हित चिंतक किसी माननीय विधायक का ही। तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने 1985 को स्थानीयता का आधार बनाया था। यह भी बढ़िया था। यदि इस आधार पर भी नौकरी दी जाती तो भी बेहतर होता । 1985 की स्थानीयता के बावजूद यूपी, एमपी, बंगाल, छत्तीसगढ़ के युवको ने पैराशूट की तरह यहां नौकरी हासिल कर ली, जिनका बिहार- झारखंड का आधार कार्ड भी नहीं था और न ही बिहार-झारखंड में नाना- नानी, बुआ- फूफा या मामा के साले का साला का घर था।
अपने धनबाद समेत सभी सामान्य 11 जिलों में जिले के हाई स्कूलों और प्लस टू हाई स्कूलों में उत्तर प्रदेश के शिक्षक छाए हुए हैं और प्राइमरी स्कूलों में भी बंगाल के युवकों घुस गए हैं । बंगाल के अधिकांश युवकों ने झारखंडी और झारखंड में रचे बसे उर्दू अभ्यर्थियों की हक मारी की है, यानी दूर-दूर से भी बिहार- झारखंड से वैसे युवकों का कोई वास्ता नहीं था और नहीं उन्होंने कभी झारखंड में अपना कदम रखा था। पर वह पैराशूट की तरह आए और नौकरी हथिया ली। और तो और संविदा के आधार पर झारखंड के सरकारी अस्पतालों में सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी के पद पर बड़ी संख्या में राजस्थान के युवकों ने नौकरी पा ली।
इस लोकतंत्र में झारखंडी कहकर तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भ्रष्ट , घोटालाबाज का तगमा दिया जा सकता है, परंतु यह हकीकत है कि श्री सोरेन सपने में भी नहीं सोच सकते कि दूसरे राज्यों के लोग तृतीय एवं चतुर्थ वर्गीय नौकरियों में आए। यही कारण था कि पैराशूट रोकने के लिए उन्होंने एक छोटी सी शर्त लगाई थी कि झारखंड से मैट्रिक और इंटर करने वाले ही यहां के तृतीय और चतुर्थ वर्गीय नौकरियों में आवेदन कर सकते हैं। हालांकि रांची जमशेदपुर धनबाद बोकारो सहित झारखंड के विभिन्न जिलों में उत्तर प्रदेश, बिहार और दूसरे राज्यों के लाखों ऐसे युवक हैं, जिन्होंने झारखंड से मैट्रिक और इंटर की डिग्री ली है । ऐसे युवकों को भी हेमंत सोरेन सरकार की इस नीति से लाभ होता।
इसके पूर्व वर्ष 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने ऐसा प्रावधान किया था कि तृतीय और चतुर्थ वर्गीय नौकरियों में दूसरे राज्य के लोग आवेदन ही नहीं कर सकते थे, जिसे कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया और इसके लिए श्री मरांडी को मुख्यमंत्री की कुर्सी भी गंवानी पड़ी थी। हालांकि करारी हार के बाद भाजपा ने झारखंड के हित चिंतक बाबूलाल मरांडी को फिर अपने दल में शामिल कराया और एक तरह से उन्हें पूरी बागडोर दे दी है। यदि बाबूलाल मरांडी की नीति का उसी समय सभी दलगत राजनीति से हटकर समर्थन करते तो पिछले 20 वर्षों में झारखंड में दूसरे राज्यों के युवक नौकरी हथिया नहीं पाते उन्होंने नौकरी ही नहीं हथियाई बल्कि यहां घर बनाकर यहां निवासी हो गए। हालांकि अब स्थिति बदली है और भाजपा भी समझ चुकी है कि स्थानीय निवासी यदि बिदक गए तो पार्टी का अस्तित्व बचाना मुश्किल होगा।
यही कारण है कि 2022 में भाजपा विधायकों ने विधानसभा में रहकर 1932 का खतियान विधेयक पारित कराया था। इसके बाद कारण चाहे जो रहा झारखंड मुक्ति मोर्चा एवं कांग्रेस गठबंधन सरकार महामहिम राज्यपाल द्वारा एक बार लौटा दिए जाने के बाद विधेयक फिर राजभवन नहीं भेजी। यदि विधेयक को और दो बार भेज दिया जाता तो महामहिम राज्यपाल की मजबूरी हो जाती, इसे केंद्र भेजने की।जेबीकेएसएस की उपज इसी का परिणाम है। अगर जयराम सलीके से इसे धार देते हैं तो निश्चित रूप से झारखंडियों का बहुत बड़ा भला होगा। और डुमरी,गोमिया,सिल्ली, तमाड़ और ईचागढ़ से 2024 में उनके अपने विधायक भी होंगे, इतना ही नहीं टुंडी,सिंदरी,चंदनकियारी, रामगढ़,बड़कागांव और मांडू में भी इसकी दमदार उपस्थिति रहेगी। आजसू का सूपड़ा साफ हो जाएगा।